इतवारें होतीं थीं तब,
अब तो बस इतवारें आती हैं।
कुछ नाप हमारा छोटा था
बिन झुके, आँख मिला पाते थे फूलों से।
सूरज कुछ और दमकता था
कुछ ज्यादा सुबह उठ जाते थे हम भी।
सप्ताह भर के थकान के बाद
बाबूजी के नींद अमृत घोलती थी आँखों में।
सुबह-सवेरे साथ सैर पर जाते थे।
थक जाने के भाव बनाकर,
चढ़ गोदी पे इतराते थे।
साप्ताहिक खरीदारी होती थी सब्ज़ियों की
मुझे याद है अब तक,
झोला भर जाता था आढ़ी-टेढ़ी सब्ज़ियों से
चार लोगों का परिवार था, सात दिनों का चारा था।
कुछ बड़ा हुआ तो वीर-श्रवण सा
छीन लेता था झोला बाबूजी के हाथों से।
जैसे तैसे घर तक घींच-तान के लाता था।
बड़ा कुछ ज्यादा हो गया हूँ अब जैसे,
छुट्टियों से भी छुट्टी मिली है, तो घर आया हूँ।
आज मन किया फिर अपना वो इतवार जीने का,
छीन लिया फिर सब्ज़ी का झोला हाथ बढाकर।
वो वाकिफ-सा वजन नहीं था,
आँख कुछ डबडबाई, कुछ दिल ने कन्धा कमज़ोर किया।
दूर हुए हम, वजन हुआ कम
पर क्या अब वो तुच्ची-सी सब्ज़ियाँ खरीदना उनको भाता होगा
वजन के अभाव से उनका कलेजा भारी हो जाता होगा
खाली झोला, खाली घर का एहसास जरूर कराता होगा।
बाबस्ता कितना बोझ ढोते आये हैं बाबूजी
आधी सब्ज़ी, और अब आधा घर का खालीपन।
दौड़ लगी है एक इतवार फांदकर दूसरे इतवार जाने को।
भागते थे पहले भी, बाबूजी के स्कूटर पे बैठने को
पर वो दौड़ और थी, वो दौर और था।
वो इत्र-सा महका इतवार और था।
इतवारें होतीं थीं तब
अब तो बस इतवारें आती हैं।
अब तो बस इतवारें आती हैं।
कुछ नाप हमारा छोटा था
बिन झुके, आँख मिला पाते थे फूलों से।
सूरज कुछ और दमकता था
कुछ ज्यादा सुबह उठ जाते थे हम भी।
सप्ताह भर के थकान के बाद
बाबूजी के नींद अमृत घोलती थी आँखों में।
सुबह-सवेरे साथ सैर पर जाते थे।
थक जाने के भाव बनाकर,
चढ़ गोदी पे इतराते थे।
साप्ताहिक खरीदारी होती थी सब्ज़ियों की
मुझे याद है अब तक,
झोला भर जाता था आढ़ी-टेढ़ी सब्ज़ियों से
चार लोगों का परिवार था, सात दिनों का चारा था।
कुछ बड़ा हुआ तो वीर-श्रवण सा
छीन लेता था झोला बाबूजी के हाथों से।
जैसे तैसे घर तक घींच-तान के लाता था।
बड़ा कुछ ज्यादा हो गया हूँ अब जैसे,
छुट्टियों से भी छुट्टी मिली है, तो घर आया हूँ।
आज मन किया फिर अपना वो इतवार जीने का,
छीन लिया फिर सब्ज़ी का झोला हाथ बढाकर।
वो वाकिफ-सा वजन नहीं था,
आँख कुछ डबडबाई, कुछ दिल ने कन्धा कमज़ोर किया।
दूर हुए हम, वजन हुआ कम
पर क्या अब वो तुच्ची-सी सब्ज़ियाँ खरीदना उनको भाता होगा
वजन के अभाव से उनका कलेजा भारी हो जाता होगा
खाली झोला, खाली घर का एहसास जरूर कराता होगा।
बाबस्ता कितना बोझ ढोते आये हैं बाबूजी
आधी सब्ज़ी, और अब आधा घर का खालीपन।
दौड़ लगी है एक इतवार फांदकर दूसरे इतवार जाने को।
भागते थे पहले भी, बाबूजी के स्कूटर पे बैठने को
पर वो दौड़ और थी, वो दौर और था।
वो इत्र-सा महका इतवार और था।
इतवारें होतीं थीं तब
अब तो बस इतवारें आती हैं।
heart touching shankar bhai
ReplyDeleteEvocative yet soothing...
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ReplyDeletedil se likhi baat sidhe dil me utari hai guru....khubsoorat
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