Friday 3 July 2015

मुसल्सल ग़ज़ल

बाग़ फूलों का, सावन में.. बिखर भी सकता है।
चाहते-जीस्त में.. यौवन संवर भी सकता है।

गलत ख्याल है ये, कि मंज़िल पे फिर मिलेंगे हम
सफर के बीच में.. मुसाफिर उतर भी सकता है।

फरेबी फितरत है, मिज़ाज़ भौरों सा
किसी भी सांस पे.. ये दिल मुकर भी सकता है।

ज़रा सा वक़्त लगेगा, मंज़र बदलने में
मरीज़-ऐ-इश्क़ का क्या.. कभी सुधर भी सकता है।

वो रुखसती का एक लम्हा कबसे अटका है
तेरी दुआ जो मिलती रहे.. गुज़र भी सकता है।।

4 comments:

  1. Insha Allah,zarur gujar jayega..
    Behtareen shayari!!

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  2. ज़रा सा वक़्त लगेगा, मंज़र बदलने में
    मरीज़-ऐ-इश्क़ का क्या.. कभी सुधर भी सकता है।
    waah shankar bhai

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  3. माशा अल्लाह...

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  4. Vivek, I just loved this poem. Brilliant !

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