Friday 24 January 2014

बगीचा


एक बगीचा था जहाँ तुम्हारे छाँव की छींटें पड़ीं थीं कभी। 
वहाँ की मिटटी भी तुम ही चल-चलके कोढ़ देती थी।
तुम्हारे तलवे कि छुवन सलामत है अब भी,
कि तुम लौटकर आओ कभी तो अपने निशान देखो। 

मैं माली हूँ मगर बागबानी के काबिल नहीं रहा। 
अब तो दिल की ईटों पे धूल जमके मिट्टी हुई जाती है। 
बगीचे के सीना-ये-कंक्रीट से भी अंकुर फूट आये,
जन्म लेते ही गुलेगुलज़ार का पता मांगते हैं।  

बांवले से हो गये हैं सारे सूरजमुखी के फूल। 
सूरज को भूल, तेरे आने का रस्ता तकते हैं।
हुई मुद्दत कि जब तुम्हारा मन हुआ हो आने का ,
कि तुम आओ तो दिल का रेगिस्तान, बगीचा बन जाये।।