Wednesday 17 July 2013

अब जाग मूर्ख ! तेरी भोर हुई !

अब रंग बदल इस जीवन का,
रंगों में खूब नहाए हो !
कभी लाल हुए गुस्से में तर,  
हुए नीले, जीवन-विष पीकर।
कभी कालिक मली है कर्मों की,
हुए श्वेत कभी तुम दुःख जीकर। 
जब रंगों में हो युद्ध छिड़ी,
क्या रंग शेष रह जायेगा !
तब श्याम रंग ही छाएगा। 
जीवन अंधकार को जायेगा।
अब जाग मूर्ख ! तेरी भोर हुई !

सूरज को रंग बदलता देख।
जीवन की सूक्ष्म सरलता देख।
जब आये वसन्त,तब हरा देख।
गर्मी में जलती धरा देख। 
जब बारिश पायल-बाँध झमके,
निर्मल बूंदों को सजा देख।
पतझर भी जो तू देख सका,
पीले धरती की घटा देख।
कृत्रिम रंगों की चमक फेक,    .
दुर्बल भावों के ऐनक फेक।
अब जाग मूर्ख ! तेरी भोर हुई !

है शोर बहुत तेरे जीवन में,
है  कोलाहल अन्तः मन में।
कभी चिल्लाते अरमान तेरे,   
कभी गुर्राते हैं प्राण तेरे। 
शहरों के चौड़े सड़कों पर
सुनते बस शोर दिशाओं में।
रातें भी तेरी मौन नहीं,
है यौवन का भी मान तुम्हें।   
जब शोर में यूँ नहाओगे,
निज-धड़कन कैसे सुन पाओगे !
अब जाग मूर्ख ! तेरी भोर हुई !

कभी सुना है तूने कानों से,
सूर्योदय के पहले का सन्नाटा
वायु का वेग,जल का कलरव,
क्या तेरे कानों तक आता
क्या कोयल,काक और बुलबुल की
वाणी का है बोध तुझे?
है तू उल्लू, या उल्लू की हूट
तू सुन सकता जब सूर्य बुझे?
कभी आँख मूँद और मौन साध,
सुन प्रकृति के शंखनाद।
अब जाग मूर्ख ! तेरी भोर हुई 

घर बदल दर बदल,
बस आँखों का चादर बदल।
विवश होके ये प्राण  ढो,
हल्का करले अरमानों को।
मत सोच अधिक 
कि पाथ कठिन।
कुछ देर अगर तू चाहे तो 
करले बंद दिमाग के कान,
मूंद ले दिल के नयन।
और आँखों से देख!कानों से सुन!

अब जाग मूर्ख ! तेरी भोर हुई !  

Thursday 4 July 2013

मैंने झील में एक पत्थर फेका


एक झील थी गुमनाम-सी,
शहर के शोर से कुछ दूर।
बड़ा शांत  था सीना उसका,
कभी हलचल दिखी सतह  पे।
धीरे-धीरे कंकड़-पत्थर
अपने पैरों से किनारे  ढकेल देती थी।

मैंने झील में एक पत्थर फेका !
कोई कारण तो था।
दिल में कुछ बातें होंगी ,
दिमाग में कुछ सवाल।
दिल और दिमाग को व्यस्त देख
हाथ स्वतंत्रता दिवस मना रहे थे।

जो मेरा पत्थर चीरता है आज
शांत से झील के तन को,
एक सवाल-सा कूदे है पलट के
छीटों में उसको छाती से।
कि " तुम बेचैन लगते हो,
बड़े  गोले  बरसाते हो।
मुझे बोध दो, क्यों नींद से
मुझको उठाते हो?"

याद आई एक कल की बात।
एक लड़की थी बचकानी-सी,
झील पर पत्थर चुना करती थी वो।
आढ़े-टेढ़े पत्थरों में
कोई रूप देखती थीं उसकी आँखें।
पैरों के दरारों से कभी
दिखता कोई जो गोल-सा पत्थर ,
उठाती थी हथेली पर,
फिर मुझको दिखाती थी।

मुझे ख़ास लगा कभी,
कोई भी झील का पत्थर।
मगर मुस्कान जो देखी
जैसे मोती हो हाथों में।
वो जो नाज़ुक-सा बर्तन था हथेली का,
जो पत्थर संभाल पाता,
मुस्कान देते थे मेरी आँखों को।
मैं हाथों में धर,महसूस कर, उछाल कर
बड़ाई कर देता उसके पत्थर की।
दुपट्टे में बाँध ले जाती वो फिर,
अपने मोती से पत्थर को।

पर अब मैं क्या जवाब दूँ
अपने ही वार से उछले
उन छीटों से प्रशनों को।
क्या मैं बोलूं की तेरे सीने के टुकड़े ,
जो तूने संभाल कर रखे थे
अपने पैरों के किनारों पे।
एक बचकानी-सी लड़की
अपने रेशमी दुपट्टे के कोने में
धर के ले गयी है
तेरे सीने के मोती को।

क्या मैं बोलूं कि
जो लड़की गयी थी ,
वो लौटने वाली नहीं
अब तेरे तट पर।
कि यहाँ मैं भी बैठा हूँ ,
इस बात के डर से।
उसने तेरे किनारे से
जो पत्थर उठाये थे,
वो मुलाकातों के मोती थे।
अब आगे बढ़ चली है वो,
मालाएं मोती की रखती है।
वो डरती है कि
मैं अब मांग बैठूं,
उन मुलाकातों के मोती को।

तो मैं अब मौन बैठा हूँ,
झील के सवालों के आगे।
कैसे समझाउं कि
तू ही अकेला नहीं लुटा है
अपने पत्थर को खोके।
मेरा पत्थर-सा दिल भी
उसके साथ ही गया है,
कभी वापस आने को।

निराशा से देखा जब
उस झील के जल में,
छींटें तो कब की शांत होकर
दब गयीं थीं,शान्ति थी अब।
शायद जानतीं थीं वो,
कि उनके प्रश्नवाचक चिह्नों के
उत्तर नहीं मेरे हवाले में।

जो उत्तर ढूँढतीं हों वो,
तो मेरा अक्स दीखता होगा
उस झील के सीने में।
बहुत पत्थर झेले हैं उसने,
सयानी है, समझती होगी,
मेरी निराशा के उत्तर को।

आँखें भी नम हो गयीं,
इतना कुछ याद आने पे।
एक पत्थर फेक के मैंने
कितने सागर छलका दिए।

मैंने झील में एक पत्थर फेका।।