एक झील थी गुमनाम-सी,
शहर के शोर से कुछ दूर।
बड़ा शांत था सीना उसका,
कभी हलचल न दिखी सतह पे।
धीरे-धीरे कंकड़-पत्थर
अपने पैरों से किनारे ढकेल देती थी।
मैंने झील में एक पत्थर फेका !
कोई कारण तो न था।
दिल में कुछ बातें होंगी ,
दिमाग में कुछ सवाल।
दिल और दिमाग को व्यस्त देख
हाथ स्वतंत्रता दिवस मना रहे थे।
जो मेरा पत्थर चीरता है आज
शांत से झील के तन को,
एक सवाल-सा कूदे है पलट के
छीटों में उसको छाती से।
कि " तुम बेचैन लगते हो,
बड़े गोले बरसाते हो।
मुझे बोध दो, क्यों नींद से
मुझको उठाते हो?"
याद आई एक कल की बात।
एक लड़की थी बचकानी-सी,
झील पर पत्थर चुना करती थी वो।
आढ़े-टेढ़े पत्थरों में
कोई रूप देखती थीं उसकी आँखें।
पैरों के दरारों से कभी
दिखता कोई जो गोल-सा पत्थर ,
उठाती थी हथेली पर,
फिर मुझको दिखाती थी।
मुझे ख़ास न लगा कभी,
कोई भी झील
का पत्थर।
मगर मुस्कान जो देखी
जैसे मोती हो हाथों में।
वो जो नाज़ुक-सा बर्तन था हथेली का,
जो पत्थर संभाल न पाता,
मुस्कान देते थे मेरी आँखों को।
मैं हाथों में धर,महसूस कर, उछाल कर
बड़ाई कर देता उसके पत्थर की।
दुपट्टे में बाँध ले जाती वो फिर,
अपने मोती से पत्थर को।
पर अब मैं क्या जवाब दूँ
अपने ही वार से उछले
उन छीटों से प्रशनों को।
क्या मैं बोलूं की तेरे सीने के टुकड़े ,
जो तूने संभाल कर रखे थे
अपने पैरों के किनारों पे।
एक बचकानी-सी लड़की
अपने रेशमी दुपट्टे के कोने में
धर के ले गयी है
तेरे सीने के मोती को।
क्या मैं बोलूं कि
जो लड़की गयी थी ,
वो लौटने वाली नहीं
अब तेरे तट पर।
कि यहाँ मैं भी बैठा हूँ ,
इस बात के डर से।
उसने तेरे किनारे से
जो पत्थर उठाये थे,
वो मुलाकातों के मोती थे।
अब आगे बढ़ चली है वो,
मालाएं मोती की रखती है।
वो डरती है कि
मैं अब मांग न बैठूं,
उन मुलाकातों के मोती को।
तो मैं अब मौन बैठा हूँ,
झील के सवालों के आगे।
कैसे समझाउं कि
तू ही अकेला नहीं लुटा है
अपने पत्थर को खोके।
मेरा पत्थर-सा दिल भी
उसके साथ ही गया है,
कभी वापस न आने को।
निराशा से देखा जब
उस झील के जल में,
छींटें तो कब की शांत होकर
दब गयीं थीं,शान्ति थी अब।
शायद जानतीं थीं वो,
कि उनके प्रश्नवाचक चिह्नों के
उत्तर नहीं मेरे हवाले में।
जो उत्तर ढूँढतीं हों वो,
तो मेरा अक्स दीखता होगा
उस झील के सीने में।
बहुत पत्थर झेले हैं उसने,
मगर मुस्कान जो देखी
जैसे मोती हो हाथों में।
वो जो नाज़ुक-सा बर्तन था हथेली का,
जो पत्थर संभाल न पाता,
मुस्कान देते थे मेरी आँखों को।
मैं हाथों में धर,महसूस कर, उछाल कर
बड़ाई कर देता उसके पत्थर की।
दुपट्टे में बाँध ले जाती वो फिर,
अपने मोती से पत्थर को।
पर अब मैं क्या जवाब दूँ
अपने ही वार से उछले
उन छीटों से प्रशनों को।
क्या मैं बोलूं की तेरे सीने के टुकड़े ,
जो तूने संभाल कर रखे थे
अपने पैरों के किनारों पे।
एक बचकानी-सी लड़की
अपने रेशमी दुपट्टे के कोने में
धर के ले गयी है
तेरे सीने के मोती को।
क्या मैं बोलूं कि
जो लड़की गयी थी ,
वो लौटने वाली नहीं
अब तेरे तट पर।
कि यहाँ मैं भी बैठा हूँ ,
इस बात के डर से।
उसने तेरे किनारे से
जो पत्थर उठाये थे,
वो मुलाकातों के मोती थे।
अब आगे बढ़ चली है वो,
मालाएं मोती की रखती है।
वो डरती है कि
मैं अब मांग न बैठूं,
उन मुलाकातों के मोती को।
तो मैं अब मौन बैठा हूँ,
झील के सवालों के आगे।
कैसे समझाउं कि
तू ही अकेला नहीं लुटा है
अपने पत्थर को खोके।
मेरा पत्थर-सा दिल भी
उसके साथ ही गया है,
कभी वापस न आने को।
निराशा से देखा जब
उस झील के जल में,
छींटें तो कब की शांत होकर
दब गयीं थीं,शान्ति थी अब।
शायद जानतीं थीं वो,
कि उनके प्रश्नवाचक चिह्नों के
उत्तर नहीं मेरे हवाले में।
जो उत्तर ढूँढतीं हों वो,
तो मेरा अक्स दीखता होगा
उस झील के सीने में।
बहुत पत्थर झेले हैं उसने,
सयानी है, समझती
होगी,
मेरी निराशा के उत्तर
को।
आँखें भी नम हो गयीं,
इतना कुछ याद आने पे।
एक पत्थर फेक के मैंने
कितने सागर छलका दिए।
मैंने झील में एक पत्थर फेका।।
आँखें भी नम हो गयीं,
इतना कुछ याद आने पे।
एक पत्थर फेक के मैंने
कितने सागर छलका दिए।
मैंने झील में एक पत्थर फेका।।
jiyo shankar bhai.
ReplyDeleteवक्त बहुत लगा होगा लेकिन अच्छा लिखा है .
ReplyDeletebhai kahan se inspiration milta hai aisa thoughts ka... flipkart mein to not possible
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा है। तुम्हारे अन्दर एक कवि भी छिपा है। यह मुझे अब पता चला है। अदभुत लेखन छोटु����
ReplyDelete8th para - aced it
ReplyDeleteEk patthar fek ke maine kitna saagar chhalka diya...bahut khoob :)
ReplyDeleteawsum job dude..
ReplyDeletefirst-rate...
ReplyDeletevery beutiful......
ReplyDeletenyc....ths reminds me of hindi classes ki kavitayen.....u shud publish al of ur poems...its rathr gd........:)
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