इस दिल के रेगिस्तान में
अब हसरतें हीं पलतीं हैं।
दिल के सपाट फर्श पर
टीलों सी कुछ उभरतीं हैं।
हवा चलते हीं ये टीले,
यहाँ मिटते, वहां उठते।
ये हसरतें कुछ और
हसरतों में ढल जातीं।
चलती रही अपने ही पथ।
हालात को बौना समझ,
उसे लांघने की कशमकश
में जूझती और टूटती।
रोड़े बहुत, कांटे बहुत ,
हसरत ने जैसे सुन लिया,
उठके मुझे है ताकती।
मूह खोलके पहली दफा,
अपना बयान बाटती ..
न होती मैं तो करता क्या?
क्या बांधता अपनी दिशा!
चाहते हैं इक दिशा
जिसके लिए जीती हूँ मैं।
हां ,एक दिन मैं मर जाउंगी।
फिर आयेगी, और हसरत कोई
तेरी दिशा को बाँधने। "
उस जवाब से लाजवाब हूँ,
सच कह गयी हसरत मेरी।
अब हसरतें हीं पलतीं हैं।
दिल के सपाट फर्श पर
टीलों सी कुछ उभरतीं हैं।
हवा चलते हीं ये टीले,
यहाँ मिटते, वहां उठते।
ये हसरतें कुछ और
हसरतों में ढल जातीं।
ये चाल में है तेज पर,
उसे रोकने चला हूँ मैं,
उसकी कलाई थामता।
कभी डांट के, कभी टोक के
उसका मिजाज़ भांपता।
उसके वेग को धीमा पा कभी
पूछा मैंने उससे बहुत
किसे ढूँढने चली है तू!
कहाँ जाएगी! किस मोड़ तक!
हसरत कहीं मशगूल थी,
सुनती कहाँ मेरा कहा।चलती रही अपने ही पथ।
हालात को बौना समझ,
उसे लांघने की कशमकश
में जूझती और टूटती।
रोड़े बहुत, कांटे बहुत ,
राहों में सन्नाटे बहुत।
हारी बहुत हालात से,
पर हार से कहाँ हारती
मंजिल को सबकुछ मानती।
फिर भी नहीं समझा कभी
क्या चाहती हैं हसरतें।
जब तक नहीं मंजिल मिली,
चोटों से, ज़ख्मों से भरी,
ये कर देती है ज़िन्दगी।
जब लक्ष्य उसने पा लिया,
उस क्षण वहीँ हसरत मिटी
दम तोड़ती ये उस घड़ी।
इस हसरत का
आगाज़ स्वपन है,
जीवन चुभन है,
अंजाम मरन है।
फिर क्यों ये सारी जुस्तजू ..
उठके मुझे है ताकती।
मूह खोलके पहली दफा,
अपना बयान बाटती ..
“जो मैं हूँ तो हो जिंदा से तुम।
होने से मेरे, स्वपन हैं।
हूँ मैं तो है मंजिल कोई।न होती मैं तो करता क्या?
क्या बांधता अपनी दिशा!
ये ज़िन्दगी का कारवां,
बुझदिल तेरे ये जिस्म-ओ-जान,चाहते हैं इक दिशा
जिसके लिए जीती हूँ मैं।
हां ,एक दिन मैं मर जाउंगी।
फिर आयेगी, और हसरत कोई
तेरी दिशा को बाँधने। "
सच कह गयी हसरत मेरी।
ये आँख जिनमें ख्वाब हैं,
यह दिल, हैं जिसमे आरज़ू,
ये बाज़ू जिनमे है सख्त ,
रहूँगा उनके दरमियाँ,
जीता रहूँगा ये जहां ..
इन हसरतों के वास्ते ..
इन हसरतों के नाम से ..