Tuesday 23 October 2012

कलाम-ए-कलम

कभी कलम की नोक देखता हूँ,
कभी कागज़ का खालीपन देखता हूँ.
ज़ुबान जो कहने में सक्षम नहीं ,
सियाही में उन शब्दों के अक्स देखता हूँ.

यूँ तो कलम की कमान
है मेरे ही हाथ में,
फिर भी अक्सर मेरे बस में नहीं.
दिल से कोई रिश्ता सा है इसका,
उसी की बातें लिखता है.

लिखते-लिखते, इक अजीब सा बोध हुआ,
कि जब-जब कागज़ पे
सियाही के धब्बे बिखेरे,
तो ये दिल का दर्पण बन गया.

कभी-कभी कलम की
कागज़ पर नकाशी देख,
आँखें भी हैरान हुईं.
जो दिल खुद को भी
बता न पाया,
वैसी बातें भी आम हुईं.

स्वच्छ कागज़ को
निरर्थक बातों से अधभरा देख,
कभी ये भी विचार आता है,
कि क्या मैं यूँ ही
जीवन के सफ़ेद पृष्ट पर
कर्मों कि कालिक मलता रहा हूँ!

इन विचारों, इन भावों से जूझती रही
पर कलम कभी रुकी नहीं.
कि शायद शब्दों के इस बहाव में,
कोई अपना बहाव देखे.
और मेरी निरर्थक बातों में,
कोई अपने जीवन को सार्थक देखे.

कुछ बातें लिख के काट दी हैं,
शायद कलम भी हिचकिचाती है.
दिल कि कटपुतली जो ठहरी,
दिल के ऐब छुपाती है.

फिर भी, कागज़ के सफ़ेद चौसड़ पर
शब्दों के दांव लगाता हूँ .
जो हारूँ तो मौन सहूँ,
जीतूँ तो मौन कर दूँ.

Saturday 13 October 2012

मन चंगा तो कठौती में गंगा

बचपन के रंज-ओ-ग़म में,
हर मोड़ उस जीवन में,
आती थीं मुश्किलों की छिट-पुट बौछारें,
बचकानी परेशानियों के तूफ़ान..
ये तूफ़ान जब उफान पे रहता था,
दिल जब बेचैन सा रहता था,
बाबूजी के स्वर से ठंडक पाता,
जब वो कहते..
"बेटा, मन चंगा तो कठौती में गंगा"..


सावन बीते जीते-जीते,

गुजरे पतझर पीते-पीते.
दुनिया की बेरुखी देखी,
परिस्थितियाँ विपरीत सी देखी.
भावों का जब भी भार हुआ,
दिल जब-जब  बेज़ार हुआ,
उस शख्स का अक्स आँखों में उतरा,
और पियूष-वचनों  के स्वर कानों में गूंजे..
"बेटा, मन चंगा तो कठौती में गंगा"..


आगे न जाने कितने दोराहे,

मेरे रस्ते पे मुह खोले खड़े हैं .
न जाने कितने कड़वे जीवन,
मेरा जीवन रोके खड़े हैं ..
न मार्ग सुगम है,न संग हमदम है..
पर उस वाक्य का दर्शन ,
जब भी रूह पे छाएगा,
जीवन सुगम बन जाएगा..
जीवन विशाल बन जाएगा..

"मन चंगा तो कठौती में गंगा"..